आजादी के 60 वर्षों के बाद भी भारत में स्वतंत्रता की वास्तविकता पर सवाल उठते हैं। कवि तुलसीदास के अनुसार, "पराधीन सपनेहु सुख नाही," यह दर्शाता है कि स्वतंत्रता के बिना सुख संभव नहीं है। 15 अगस्त 1947 को मिली राजनीतिक आजादी के बावजूद, सामाजिक और सांस्कृतिक मोर्चों पर कई चुनौतियाँ अभी भी मौजूद हैं। आजादी के बावजूद, गरीबी, अशिक्षा, अंधविश्वास और धार्मिक-जातिगत वैमनस्य जैसी समस्याएँ समाज को प्रभावित कर रही हैं। डॉ. भीमराव अंबेडकर ने ऐसे तत्वों के खिलाफ आवाज उठाई थी जो समाज में समरसता में बाधक थे। उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी असहमति जाहिर की और अंग्रेजों के शासन में भारतीय कुरीतियों के खिलाफ उठाए गए कदमों को महत्व दिया। हालांकि आज भी शिक्षा, स्वास्थ्य और जीवनस्तर में सुधार नहीं हुआ है, जातीय पहचान और संघर्ष बढ़ते जा रहे हैं। पुरातनपंथी परंपराएँ स्वतंत्रता के लाभों को समाज तक पहुँचाने में बाधा डाल रही हैं। ईमानदार नेतृत्व की कमी भारतीय राजनीति और समाज में स्पष्ट है। कुछ असहज प्रश्न आजादी के खोए-पाए की पहचान में मदद कर सकते हैं, यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि क्या भारत वास्तव में स्वतंत्र है।
हम कितने आजाद, गुलाम कितने
Dr Musafir Baitha
द्वारा
हिंदी पत्रिका
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विवरण
सामंती-राजशाही शासनों के बाद, अंग्रेजी अत्याचारी शासन के बाद से अब हम कोई 70 साल से स्वतंत्र हैं, बावज़ूद, आजादी का मीठा स्वाद हम ठीक से नहीं चख पाए हैं। आजादी के खोये-पाए का एक हिसाब या कि जाएजा हम यहाँ ले रहे हैं। जाहिर है, मेरी, आपकी, सबकी आजादी है, आजादी पर हर एक स्वतंत्र एवं लोकतंत्र में खड़े नागरिक का हक है। तो आइये, मिलकर मूल्यांकन करते हैं अपनी आजादी का!
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